Nanda Devi

Nanda Devi

Nanda Devi -हमारे पुराणों में उत्तराखंड को देवभूमि कहा गया है। यहाँ कण-कण में देवताओं का निवास है। इसी देवभूमि में है माँ नंदा देवी का घर या (मायका)। नंदा देवी पर्वत जो की भारत का दूसरा और विश्व का 23वां सबसे ऊँचा शिखर है, माँ नंदा देवी का निवास स्थान है। माँ नंदा देवी, देवी पार्वती का एक रूप है। नंदा देवी हिमालय की पुत्री है। जहाँ भगवन शिव की दो अन्य पत्निया माता सती और माता पार्वती शैव मत से थी वहीँ नंदा देवी वैष्णव मत से थी।

नंदा देवी का नाम “आनंद” (खुशी) से लिया गया है और उनका अर्थ है “खुशी देने वाली देवी”। ऋग्वेद में भी मां नंदा का उल्लेख मिलता है। नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है। पूरे संसार में माँ नंदा की केवल उत्तराखंड में ही पूजा होती है,यहाँ नंदा देवी को अत्यधिक श्रद्धा और भक्ति के साथ पूजा जाता है। उत्तराखंड के लोग नंदा देवी को कोई अपनी बहन, कोई बेटी, तो कोई माता, मानते है। नंदा देवी(Nanda Devi)उत्तराखंड के राज परिवारों (गढ़वाल का पंवार वंश और कुमाऊँ का चंद वंश) की इष्टदेवी थी।

चंद वंशीय राजा बाज बहादुर चंद 1670 में नंदा देवी की प्रतिमा को गढ़वाल से कुमाऊँ लेकर आये थे। चंद वंश के शासनकाल से ही अल्मोड़ा में नंदा देवी का मेला लगना शुरू हुआ।  उत्तराखंड में गढ़वाल और कुमाऊं दोनों जगह नंदा देवी की पूजा होती है। हालाँकि दोनों जगह अलग अलग तरीके से पूजा होती है। जहाँ गढ़वाल में केवल माँ नंदा देवी की पूजा होती है वहीँ कुमाऊँ में नंदा देवी के साथ उनकी बहन सुनंदा की भी पूजा होती है। दोनों जगह नंदा देवी की अलग-अलग कहानी है।

कुमाऊँ में माँ नंदा (Nanda Devi)से जुडी कथा

नंदा और सुनंदा दोनों का जन्म राज परिवार में हुआ था। दोनों के जन्म को एक शुभ संकेत की तरह देखा गया और हर साल जन्मदिन मनाने की एक परम्परा शुरू हो गई। सालों बाद नंदा सुनंदा के जीवन की एक कथा को इस महोत्सव में शामिल किया गया । एक बार जब दोनों बहने  जंगल से होकर कहीं जा रही थी, तो एक भैंसा उनके पीछे पड़ गया।

दोनों एक केले के पेड़ के पीछे छिप गई लेकिन केले के पत्ते एक बकरी खा गयी और उन दोनों बहनों को भैंस ने मार डाला। अब जब हर साल नंदा अष्टमी को मेला लगता है तो दोनों बहन नंदा और सुनंदा की मूर्तियों को एक पहाड़ के आकार में केले के पेड़ का प्रयोग करके बनाया जाता है। पहले इस महोत्सव में एक बकरे और भैंसा की बलि दी जाती थी लेकिन अब उसे बंद कर दिया गया है। ये कथा कुमाऊँ के अल्मोड़ा और नैनीताल में प्रसिद्ध है। 

नंदा देवी(Nanda Devi) से जुडी पौराणिक कथा

द्वापर युग में कंस को जब ये पता चला की उसकी हत्या उसकी बहन देवकी और वासुदेव के पुत्र से होगी तो उसने दोनों को जेल में बंद कर दिया। जब श्री कृष्णा का जन्म हुआ तो उनकी जगह गोकुल के गोप राजा नन्द और यशोदा की पुत्री नंदा को रख दिया गया। देवकी की गोद में नवजात कन्या मिलने पर कंस नारी हत्या की अभिशाप के आशंका से उसकी हत्या करने से बिमुख हुआ।

लेकिन डर उसे तब भी था,कहीं ये कन्या उसके काल का कारण ना बन जाये। इसलिए कंस ने नंदा को उत्तराखंड के हिमालय के बीहड़ों में छोड़ दिया। फिर नंदा यहीं उत्तराखंड में हिमालय पुत्री होकर रह गई। यहीं माँ नंदा का विवाह भगवन शिव से हुआ। यहाँ माँ नंदा देत्यों का वद करके मानव समाज की सुरक्षा करती रही । प्राकृतिक आपदाओं से जूझने और देत्यों से अकेले सामना करने के लिए नंदा देवी ने आदि कालीन तंत्र विद्या की दक्षता भगवन शिव से ली। 

नंदा देवी(Nanda Devi)राज जात यात्रा

गढ़वाल में लोग पार्वती को ही नंदा मानते है, जिनका विवाह भगवन शिव से हुआ था। कहते है की माँ नंदा का मन अपने ससुराल कैलाश में नहीं लगा तो वह हर बारह साल बाद अपने मायके लौट आती है और कुछ हफ्ते बाद वापस ससुराल चली जाती है। इस ससुराल की यात्रा को  पुनरधिनियमित करते हुआ हर बारह साल में एक 280 किलोमीटर लम्बी यात्रा जोकि तीन सप्ताह तक चलती है, जिसे नंदा देवी राज जात यात्रा कहते है।

कर्णप्रयाग के नौटी से शुरू होती हुए यह यात्रा पिंडेर के किनारे होते हुए नंदकेसरी पहुँचती है जहाँ यह कुमाऊँ की नंदा यात्रा से मिलती है। और फिर पूरी यात्रा उत्तर की ओर बेदिनी बुग्याल, रूपकुंड होते हुए होमकुंड पर समाप्त होती है। इस पूरी यात्रा में एक चार सींग वाला भेड़ साथ चलता है जिसे गढ़वाली में चौसिंग्या खाडू कहते है। होमकुंड में चौसिंग्या खाडू को कैलाश जाने के लिए छोड़ देते हैं।

स्थानीय गढ़वाली रीति-रिवाजों के अनुसार, नंदा देवी (Nanda Devi)के जाने से पहले हर कोई उनसे मिलने जाता है और उन्हें ढेर सारे उपहार भेंट किए जाते हैं। आस-पास के इलाकों से कई देवता उनसे मिलने आते हैं और वह कई मंदिरों में भी जाती हैं। देवी जिस आखिरी गांव में जाती हैं, उसका आखिरी मंदिर उनके धरम-भाई को समर्पित है, जिन्हें लाटू-देवता कहते है। यात्रा के दौरान कवर किया जाने वाला पूरा क्षेत्र दो हिस्सों में विभाजित है, पहला मायका जिसे गढ़वाली में “मैत” कहते है और दूसरा ससुराल जिसे “सौरास” कहते है।

मायके क्षेत्र के लोग इस यात्रा के दौरान बहुत भावुक हो जाते हैं, जैसे कि वह अपनी बेटी को ससुराल भेज रहे हों। नंदा देवी राज जात्रा न केवल धार्मिक महत्व रखती है, बल्कि यह उत्तराखंड की संस्कृति और परंपराओं का प्रतीक भी है। इस यात्रा के दौरान स्थानीय लोगों द्वारा नृत्य, संगीत और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम भी किए जाते हैं, जो इस अवसर को और भी विशेष बनाते हैं। यह नंदा देवी(Nanda Devi)राज जात्रा उत्तराखंड के लोगों की आस्था और परंपरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे बड़े ही श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है।

नंदा देवी(Nanda Devi)पर्वत का धार्मिक महत्व

नंदा देवी को माता पार्वती का रूप माना जाता है। उत्तराखंड के लोग नंदा देवी को अपनी इष्टदेवी मानते हैं और उनका वास इसी पर्वत पर माना जाता हैं। स्कंद पुराण के मानस ग्रंथ में भी इसका ज़िक्र मिलता है। स्थानीय लोग बड़े ही श्रद्धा भाव से नंदा देवी पर्वत की पूजा अर्चना करते हैं। यहाँ के लोगों के लिए नंदा देवी का पर्वत न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि उनके जीवन और संस्कृति से जुड़ा अभिन्न हिस्सा भी है।

यहाँ के लोगों की कई धार्मिक कथाएँ और लोककथाएँ नंदा देवी पर्वत से जुड़ी हुई हैं। हर साल उत्तराखंड में नंदा देवी की पूजा और मेले होते हैं। नंदा देवी राजजात यात्रा भी इसी पर्वत की ओर जाती है, जो 12 वर्षों में एक बार होती है। नंदा देवी राजजात यात्रा बहुत ही कठिन और पवित्र यात्रा है। इस यात्रा में हजारों श्रद्धालु शामिल होते हैं और यह यात्रा कई कठिन पहाड़ी रास्तों और गहरी घाटियों से होकर गुजरती है।

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