Kabir Das Ke Dohe

Kabir Das Ke Dohe

संत कबीर दास के बारे में जानकारी

Kabir Das Ke Dohe : संत कबीर दास भारतीय साहित्य के एक महान संत और कवि थे, कबीर की शुरुआती जिंदगी के बारे में बहुत स्पष्ट और प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती है कहा जाता है की इनका जन्म एक विधवा ब्राह्मण  महिला के घर में हुआ, समाज के डर से महिला ने कबीर को छोड़ दिया। फिर कबीर को एक गरीब मुस्लिम जुलाहे परिवार ने पाला। इनका प्रारंभिक जीवन एक मुस्लिम के रूप में गुजरा, लेकिन बाद में वे एक हिंदू तपस्वी रामानंद जी से काफी प्रभावित हुए।

वह एक महान कवि थे, जिनकी रचनाएं आज भी हमें जीवन के मूल्यों को समझाने में मदद करती हैं। उनकी कहानियों और दोहों(Kabir Das Ke Dohe)में छिपे गहरे अर्थ, सामाजिक, धार्मिक और मानवता के जीवन पर रोशनी डालते हैं। संत कबीर दास जी ने अपनी रचनाओं में वेदांत, संख्या शास्त्र, और सूफी जगत को मिश्रित करके एक अद्वितीय दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।

कबीर दास के दोहे (Kabir Das Ke Dohe)आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं और उनकी बातें सत्य, साधना और आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करती हैं। उनके उपदेश लोगों को जीवन के मौल्यों को समझने और सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी कविताएं, दोहे और भजन, सामाजिक और धार्मिक एकता, भक्ति और मानवता के सिद्धांतों को प्राप्त करने में सहायता करती हैं।

संत कबीर दास के दोहे(Kabir Das Ke Dohe)

“यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान

अर्थात् : जो यह शरीर है वे विष जहर (बुराइयों) से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना सर देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा भी बहुत सस्ता है।

“गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय।”

अर्थात् : गुरु और ईश्वर अगर एक साथ खड़े हैं तो सबसे पहले गुरु के चरण छूने चाहिए, क्योंकि ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता भी गुरु ही दिखाते हैं

“ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।”

अर्थात् : हमें ऐसी मधुर वाणी बोलनी चाहिए जो सामने वाले के मन को अच्छी लगे। ऐसी भाषा दूसरे लोगों को तो सुख पहुँचाती ही है, साथ ही साथ अपने आप को भी आनंद का अनुभव होता है।

“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोई।
जो मन खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोई।”

अर्थात् : कबीर कहते हैं कि जब मैं इस दुनिया में बुराई खोजने गया, तो मुझे कुछ भी बुरा नहीं मिला और जब मैंने खुद के अंदर झांका तो मुझ खुद से ज्यादा बुरा कोई इंसान नहीं मिला।

“बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर ।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।”

अर्थात् : सिर्फ बड़ा होने से व्यक्ति अच्छा नहीं होता, बल्कि बड़ा होने के लिए उसके गुण जरूरी है । जिस प्रकार खजूर का पेड़ इतना ऊंचा होने के बावजूद राही को छाया नहीं दे सकता है और ना ही उसके फल आसानी से तोड़े जा सकते हैं। उसी प्रकार मनुष्या को भी बड़े बनने के लिए गुणवान होना जरूरी है।

“धीरे-धीरे रे मन, धीरे सब-कुछ होए ।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए।”

अर्थात् : मन को धैर्य में रखना चाहिए, क्योंकि सब कुछ धीरे-धीरे होता है। जैसे किसान धीरे-धीरे सौ घड़े पानी सींचकर, फल की आशा करता है, वैसे ही हमें अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए धैर्य से काम करना चाहिए।

“जाति न पुछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।”

अर्थात् : साधुओं से उनकी जाति नहीं पूछनी चाहिए, बल्कि उनसे ज्ञान के बारे में पूछना चाहिए। इसी तरह जो तलवार होती है मूल्य उसका होता है ना कि उसको रखने वाली म्यान की, म्यान को पड़े रहने दो। मतलब व्यक्ति की महत्ता उसके ज्ञान में होती है, ना कि उसकी जाति और सामाजिक स्थिति में।

“पोथि पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए ।
ढाई आखर प्रेम के, पढ़ा सो पंडित होए ।”

अर्थात् : कोई भी किताबें पढ़ कर दुनिया में ज्ञानी नहीं कहलाता है. बल्कि जो प्रेम के साथ पढ़ता है और समझता है, वही वास्तविक पंडित (ज्ञानी) होता है।

“तिनका कबहूँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।
कबहूँ उड़ आँखों मे पड़े, पीर घनेरी होय ।”

अर्थात् : हमें तिनके को भी छोटा नहीं समझना चाहिए, चाहे वह पाँव के नीचे हीं क्यूँ न हो। क्यूंकि यदि वह उड़कर आँखों में चला जाए तो बहुत पीड़ा देता है ।

“माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा, तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर।”

अर्थात् : इंसान का सिर्फ शरीर मरता है, उसकी इच्छाएं और माया कभी नहीं मरती। उसकी उम्मीद और इच्छा हमेशा जीवित रहती हैं।

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संत कबीर दास की रचना

बीजक

“बीजक” में कबीर जी ने भगवान के प्रति अपनी भावना को व्यक्त किया है, इसमें उन्होंने भगवन की भक्ति में डूबे रहने का संदेश दिया है। बीजक में कबीर जी ने भगवान की प्राप्ति के लिए आत्म-समर्पण और प्रेम की महत्वपूर्णता को दर्शाया है। उन्होंने यहां भक्ति को एक अनुभव सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया है और भक्ति की आवश्यकता को जीवन का आधार माना है। बीजक के तीन भाग है:-

  • रमैनी:-एक भक्तिकाव्य है, इसमें कबीर दास जी ने भगवान, जीवन और मानवता के महत्वपूर्ण विषयों पर टिप्पणी की है। रमैनी” का अर्थ है ‘राम की कहानी’ या ‘राम के लीलाएँ’। इस रचना में संत कबीर दास ने भगवान राम की कहानी को अपनी भक्ति भावना के साथ व्यक्त किया है। उन्होंने इसमें भगवान राम के गुण, लीलाएं और सीता माता के प्रति अपनी अद्वितीय प्रेम भावना को दर्शाया है।
  • सबद:- सबद कबीर दास जी की एक काव्य रचना है जो उनके आध्यात्मिक विचारों और भक्ति भावना को प्रकट करती है। इसमें कबीर दास जी ने भक्ति और ज्ञान के माध्यम से आत्मा की महत्व को दर्शाया है। “सबद” में कबीर दास जी ने भगवान के नाम का महत्व, सत्य की प्राप्ति और आत्मा के अमृत स्वरूप की विवेचना की है।
  • साखी:-“साखी रचना संत कबीर दास जी की भक्तिपूर्ण दोहों का संग्रह है, जो उन्होंने अपने उपदेशों और विचारों को व्यक्त करने के लिए रचा था। साखी की रचना साधारण भाषा में हैं और व्यावहारिक जीवन की बातें करती हैं, जिससे व्यक्ति आसानी से उनके उपदेशों को समझ सकता है।

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