Categories Blog

भारत के चार धामों की कहानी

भारत के चार धामों की कहानी-हिन्दू धर्म में चारो धामों की यात्रा अत्यधिक पवित्र और महत्वपूर्ण मानी जाती है । जिस तरह हिन्दू संस्कृति में चार वेद , चार वर्ण, चार दिशाएँ है, ठीक उसी प्रकार हिन्दू धर्म में चार धाम है । ये चार धाम भारत के चार अलग-अलग दिशाओं में स्थित हैं और प्रत्येक धाम का अपना धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व है।

इन चार धामों में से एक धाम है ( जगन्नाथपुरी ) जो भारत के पूर्व दिशा में स्थित है, दूसरा है ( द्वारकापुरी ) जो पच्छिम दिशा में स्थित है, तीसरा है ( रामेशवरम ) जो दक्षिण दिशा में स्थित है और चौथा है (बद्रीनाथधाम) जो उत्तर दिशा में स्थित है । इन चारो धामों का अलग अलग महत्व और मान्यता है ।

1. जगन्नाथपुरी

जगन्नाथ मंदिर ओडिशा के पुरी शहर में स्थित एक प्रसिद्ध और अति प्राचीन हिंदू मंदिर है। जगन्नाथपुरी मंदिर भगवान् विष्णु जी के 8 वे अवतार भगवान् श्री कृष्ण जी को समर्पित है, जगन्नाथ का अर्थ है जगत के स्वामी । जगन्नाथपुरी मंदिर में भगवान जगन्नाथ के साथ साथ उनके बड़ी भाई बलभद्र (बलराम), उनकी बहिन सुभद्रा, और साथ में श्री सुदर्शन जी विराजमान है। यहाँ भगवान जगन्नाथ के साथ इन सभी देवताओं की भी पूजा की जाती है।

जून जुलाई के माह में भगवन जगन्नाथ की भव्य रथयात्रा आयोजित होती है,जिसमें उनके साथ उनके भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा की भी रथयात्रा निकलती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार माना जाता है की कलयुग में भगवान् श्री कृष्ण राजा इंद्रद्युम्न के सपने में आये, जो की मालवा प्रदेश के राजा थे । और उनसे कहा की वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और वहां उसे एक दारु लकड़ी का लठ्ठा (तन्ना) मिलेगा, उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये और मंदिर की स्थापना कराये ।

फिर राजा इंद्रद्युम्न समुद्र तट पर गए और जैसा भगवान् कृष्ण ने उन्हें सपने में आकर बताया वह उसी अनुसार बढ़ई, कारीगर और मूर्तिकार को ढूंढ़ने में लग गए, फिर उन्हें एक बुजुर्ग व्यक्ति मिले जिन्होंने यह मूर्ति बनाने की इच्छा प्रकट की,  किन्तु साथ में यह शर्त रखी कि वह इस मूर्ति को बंद कमरे में  तैयार करेंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बंद रहेंगे, और कोई भी उस कमरे में नहीं आएगा ।

नहीं तो काम अधूरा छूट जायेगा, काम शुरू हुआ, कुछ समय तक तो उस कमरे से आवाज आयी लेकिन कुछ समय बाद आवाज आनी बंद हो गयी जिसके कारण राजा और रानी को संदेह होने लगा की कही उस बुजुर्ग व्यक्ति के साथ कुछ हो तो नहीं गया । और इस संदेह के चलते उस राजा ने उस कमरे का दरवाजा खोल दिया और राजा के दरवाजे खोलते ही राजा को आधी अधूरी मुर्तिया दिखाई दी ।

और राजा को उस बुजुर्ग के रूप में विश्वकर्मा के दर्शन हुए और उन्हें अफसोस हुआ की उनकी वजह से यह मुर्तिया अधूरी रह गयी । और फिर उन्ही मूर्तियों को मंदिर में स्थापित करवाया गया ! वर्तमान में जो मंदिर है उसे सातवीं सदी में बनाया गया था । और अतीत में यह तीन बार टूट भी चूका है। इस मंदिर की एक आश्चर्य जनक बात यह है की इस मंदिर का ध्वज हमेशा हवा की विपरीत दिशा में बहता है ।

और मंदिर के शीर्ष में लगा सुदर्शन चक्र जो की अष्ट धातु से निर्मित है, जिसे नील चक्र भी कहा जाता है, उसे किसी भी दिशा से देखने से लगता है की वह हमारी तरफ ही है । और यहाँ के प्रसाद को महाप्रसादमाना जाता है, कहा जाता है कि एक बार वल्लभाचार्य जी एकादशी व्रत के दिन जगन्नाथ मंदिर आये थे । व्रत के दिन वहां वल्लभाचार्य जी को किसी ने प्रसाद दिया।

वल्लभाचार्य ने वो प्रसाद ग्रहण किया और स्तुति करते हुए दिन के बाद रात भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को जब स्तुति समाप्त होने पर उन्होंने प्रसाद को ग्रहण किया। जिसके बाद ‘प्रसाद’ को ‘महाप्रसाद’ का गौरव प्राप्त हुआ। यहाँ  के महाप्रसाद को बड़े ही अनोखे तरीके से बनाया जाता है, यहाँ के प्रसाद को लगभग 500 रसोइए और 300 सहयोगिया साथ मिलकर बनाते हैं । और यह भी माना जाता है कि यह भोग माँ लक्ष्मी कि देखरेख में सम्पन होता है ।

यहाँ के महाभोग में  रोज 56 प्रकार के व्यंजन तैयार किये जाते हैं । और ये सारे भोग मिट्टी के बर्तनों में तैयार किए जाते हैं। और सबसे अविश्वसनीय बात या भगवान् जगन्नाथ जी चमत्कार कहें, कि रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं । जो कि लकड़ी पर ही सारा भोग तैयार किया जाता है ।

और अनोखी बात यह है कि सबसे पहले सबसे ऊपर रखे बर्तन में भोग पक कर तैयार होता है, और इसी तरह एक के बाद एक ऊपर रखे मिटी के बर्तनों में एक-एक करके भोग पक कर तैयार होता है । और उसके बाद महाप्रसाद को माता विमला देवी (माँ पार्वती के मंदिर) में चढ़ाया जाता है, और फिर भगवान् जगन्नाथ जी को, और उसके बाद मंदिर में आए श्रद्धालुओं को महाप्रसाद दिया जाता है ।

जगन्नाथपुरी

भारत के चार धामों की कहानी

2. द्वारकापुरी

द्वारकापुरी भारत के पच्छिम तटीय राज्य गुजरात में अरब सागर के किनारे स्थित है, द्वारकापुरी एक पवित्र तीर्थ स्थल हैं । प्राचीन काल से सात पवित्र नगरों अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी (वाराणसी),कांची, अवंतिका (उज्जयिनी) और द्वारका। जिन्हें सप्तपुरियाँ कहा जाता हैं, द्वारकापुरी भी उनमे से एक पवित्र तीर्थ स्थल हैं, जिसे भगवान श्री कृष्णा ने बनवाया था। द्वारका मे शंकराचार्य कि गद्दी और शरदा पीठ संग्रहालय भी हैं ।

द्वारका का निर्माण

कहा जाता है की, जब भगवान श्री कृष्ण ने कंस का वध किया था तो उसके बाद कंस के ससुर जरासंध ने भगवान कृष्ण से बदला लेने के लिए मथुरा पर 17 बार आकर्मण किया, किन्तु जरासंध को हर बार हार का सामना करना पड़ा, लेकिन मथुरा वासियों को जरासंध के आकर्मण से काफी जन-धन की हानि हुई । जिसके कारण भगवान श्री कृष्ण ने मथुरा से दूर, द्वारका को राजधानी बनाने का निर्णय किया । प्राचीन काल में इस विशाल नगरी को समुद्र ने डुबो दिया था ।

लेकिन जिस स्थान पर उनका निजी महल और हरिगृह था, वह समुद्र में नहीं डूबा और उसी स्थान पर द्वारकाधीश मंदिर है । माना जाता है कि द्वारकापुरी मंदिर का निर्माण भगवान् श्री कृष्ण के वंसज वज्रभान ने करवाया था। वर्तमान में मंदिर के अंदर भगवान श्री कृष्ण की चांदी के सिंहासन पर श्यामवर्णी चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है । जिसमे श्री कृष्ण हाथ में चक्र, गदा, शंख और कमल लिए हुए हैं ।

भगवान् श्री कृष्ण की यह वेशभूषा से सजी प्रतिमा हर किसी का मन मोह लेती है। द्वारकाधीश मंदिर एक परकोटे (रक्षा के लिए चारों ओर बनाई हुई दीवार) से घिरा हुआ है । मंदिर परिसर में दो प्रवेश द्वार हैं । उत्तर में मोक्ष द्वार और दक्षिण में स्वर्ग द्वार हैं । भक्तजन स्वर्ग द्वार से प्रवेश करते हुए मोक्ष द्वार से बाहर निकलते हैं। इस द्वार के बाहर 56 सीढ़ियां हैं जो गोमती नदी की ओर जाती हैं और मंदिर के शोभा को बढाती है।

मंदिर के पूर्व दिशा में शंकराचार्य द्वार और शारदा पीठ स्थित है। इस सात मंज़िले मंदिर का शिखर लगभग 235 मीटर ऊंचा है, मंदिर के ऊपर का ध्वज सूर्य और चंद्रमा को दर्शाता है। ध्वज को लगभग 10 किलोमीटर की दूरी से भी देखा जा सकता हैं, द्वारकाधीश मंदिर पर झंडा लगाने के लिए 52 गज कपड़े का प्रयोग किया जाता है। इसे दिनभर में 3-5 बार बदला जाता हैं।

मंदिर से एक से दो किलोमीटर के दूरी पर माँ रुक्मिणी देवी का मंदिर भी हैं । इसके अलावा मंदिर के आसपास और भी मंदिर है जिनके दर्शन करने से मन तृप्त हो जाता है । द्वारका के बारे में स्कन्द पुराण में भी उल्लेख किया गया हैं, पुराण के अंतिम 44 अध्याओं में द्वारका का वर्णन किया गया है । यह नगरी जीव जंतुओं के लिए मोक्ष प्रदान करने वाली है । यहाँ के दर्शन मात्र से ही मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है ।

द्वारकापुरी

3. बद्रीनाथधाम

बद्रीनाथ धाम भारत के उत्तर दिशा में स्थित उत्तराखण्ड राज्य के चमोली जिले में अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित है। बद्रीनाथ धाम मन्दिर भगवन विष्णु जी को समर्पित है, यहाँ उनके “बद्रीनारायण” जी के रूप में पूजा होती है। हिन्दू धर्म के अनुसार बद्रीनाथ धाम की यात्रा के बिना बाकि सभी तीर्थ धाम अधूरे माने जाते है ।

बद्रीनाथ धाम चारो ओर से हिमालय से घिरा हुआ है जिसके कारण 6 महीने यहाँ अत्यधिक बर्फ़बारी होने से मंदिर बंद रहता है और 6 महीने खुला। बद्रीनाथ धाम के आस-पास दर्शन करने के लिए अन्य पर्यटन तीर्थ स्थल भी है । जिनके दर्शनों का लाभ श्रद्धालु गण उठा सकते हैं। माना जाता है कि, भगवान बद्रीनाथ जी की कथा को पढ़ने और सुनने मात्र से ही मानव पाप मुक्त हो जाता हैं।

बद्रीनाथ धाम की पौराणिक कथा

पौराणिक कथा के अनुसार दंबोदर्व नाम का एक राक्षस था । जो की भगवान सूर्य देव का बहुत बड़ा भक्त था । उसने सूर्य देव को घोर तपस्या करके प्रसन्न किया ओर अमृतवा का वरदान माँगा । सूर्य देव ने अमृतवा का वर देने से इंकार कर दिया उन्होंने कहा जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है, इसलिए तुम कोई और वर मांगो में तुम्हे वह वर दूंगा ।

उसने भगवान सूर्य देव से एक सहस्त्र कवच माँगा, और कहा मेरा यह कवच वही तोड़ सके जिसने दस हज़ार वर्ष की तपस्या की हो । सूर्य देव वचनवध थे तो उन्होंने उसे वरदान दे दिया । सहस्त्र कवच होने के कारण दंबोदर्व का नाम सहस्त्र कवच पड गया ।

उसके बाद सहस्त्र कवच अपने आप को अमर समझने लगा, और उसने तीनो लोको में उत्पात मचा दिया । फिर सभी देवगण अपनी समस्या लेकर श्री नारायण भगवान् विष्णु के पास गए तो भगवान् विष्णु ने देवताओं को आश्वासन दिया की में शीघ्र ही इसका कोई उपचार करूंगा ।

फिर भगवान् विष्णु आत्मचिंतन में लीन हो गए की सहस्त्र कवच का वध कैसे किया जाये । फिर उन्होंने अपने दिव्य दृष्टि से देखा की पृथ्वी लोक के हिमालय के केदार खंड में एक स्थान है, जहाँ एक दिन तपस्या करने का फल दस हज़ार वर्ष के बराबर होता है ।

भगवान नारायण केदार खंड गए तो वहां उन्होंने देखा की भगवान शिव और माता पार्वती वहां पहले से ही निवास करते हैं, तो उनसे यह जगह कैसे मांगे, फिर भगवान नारायण ने एक लीला रची वह ऋषि गंगा के समीप जाकर एक शिला मे उन्होंने एक नन्हे बालक का रूप लिया और जोर-जोर से रोने लगे ।

उस शिला को  ( लीला ढूँगी ) के नाम से जाना जाता है । बालक की रोने के आवाज तीनो लोको में गूंजने लगी । भगवान शिव, भगवान नारायण की लीला को समझ चुके थे । लेकिन जगत माता पार्वती, ममता के अधीन होकर ये न जान पायी की यह नारायण की लीला है ।

माँ पार्वती ममता से विभोर होकर भगवान् शिव से कहने लगी । इस प्यारे से बालक को न जाने कौन यहाँ छोड़ गया है मुझसे अब इसका रोना नहीं देखा जाता, अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं बालक को देख के आ जाऊ, भगवान शिव जो, भगवान् नारायण की लीला को जान चुके थे उसका आनंद ले रहे थे । फिर उन्होंने माता से कहा जिसका बालक होगा वो स्वयं ही ले जायेगा ।

अगर आपको फिर भी जाना है तो आप बालक को देख के आ जाओ । माँ पार्वती बालक के पास गयी और नारायण के उस सुंदर बालक के रूप को देख कर बालक को गोदी में उठाये बिना नहीं रह पायी । बालक भी माता की गोदी में जाकर शांत हो गया । फिर माता उस बालक को अपने साथ ले गयी और भगवान शिव से कहा की इस नन्हे से बालक को मैं अपने पास यही रख लूँ ।

भगवान शिव जो नारायण की लीला को देख कर मन ही मन मुस्करा रहे थे माता से बोले रख तो लो पर बाद में पछताना मत । माता ने कहा यह तो बालक है, इसको अपने साथ रखने मे पछताना कैसा और फिर माता ने उस बालक को सुला दिया । माता पार्वती और भगवान शिव ध्यान करने गए और जब वापस आये तो देखा जहाँ बालक थे वहां चतुर्भुजी श्री नारायण हैं । माता ने नारायण को देखा और कहा आप यहाँ कैसे आपके यहाँ आने का प्रयोजन और बालक कहाँ गया ।

भगवान नारायण मुस्कराये और बोले माँ आपका वो बालक मैं ही हूँ ।  मैं जग कल्याण हेतु यहाँ ध्यान लगाने आया हूँ । यह स्थान बड़ा ही दिव्या हैं, मुझे जब पता चला की यह स्थान में आप रहते हो तो मुझे यह लीला करनी पड़ी ताकि आप स्वयं ही यह स्थान मुझे दे दें, और आपने यह स्थान मुझे दिया ।

माँ पार्वती और भगवान शिव ने यह स्थान फिर श्री नारायण को दें कर स्वयं केदारनाथ में चले गए । जिस स्थान से भगवान शिव और माता गए उस स्थान को आदिकेदारेश्वर के नाम से जाता हैं । यहाँ आज भी भगवान विष्णु के बाल रूप के पद चिह्न हैं । फिर भगवान नारायण ध्यान चिंतन (आत्म चिंतन) में लीन हो गए। उनके धरती लोक में ध्यान चिंतन में लीन होने के कारण माता लक्ष्मी व्याकुल हो गयी। वह सोचने लगी की प्रभु की सेवा कैसे करू।

माता लक्ष्मी भी केदार खंड आ गयी और जहाँ भगवान नारायण आत्म चिंतन लीन थे वहां पे बद्री (बेर) का पेड़ के रूप में भगवान नारायण को धूप, बारिश, बर्फ से बचाने लगी ताकि श्री नारायण को आत्म चिंतन में को परेशानी न आये। जब भगवान श्री नारायण का ध्यान टुटा तो वह माता लक्ष्मी कि सेवा से बहुत प्रस्सन हुए और माता को वरदान दिया कि आपने बद्री के वृक्ष के रूप में मेरी सेवा कि है, तो मेरा यह प्रिया स्थान बद्री नारायण बद्रीनाथ के नाम से जाना जाएगा और जब कभी भी मेरा नाम लिया जायेगा तो मेरे नाम से पहले आपका नाम लिया जायेगा।

उसके बाद से ही माता का नाम श्री नारायण से पहले लिया जाता है जैसे बद्रीनाथ, सीताराम, राधाश्याम, लक्ष्मीनारायण। उसके बाद भगवान श्री नारायण ने धर्म और उनकी पत्नी रूचि जो कि भगवान् विष्णु के अनन्य भक्त थे और भगवान् विष्णु कि पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या कर रहे थे। उनके घर में नर, नारायण के रूप में अवतार लिया। नर, नारायण अपनी बाल्यावस्था में ही जगकल्याण हेतु अपने माता-पिता से आज्ञा लेकर तपस्या करने बद्रीका आश्रम आ गए।

तत्पछ्यात अलकनंदा के दायीं और बायीं ओर नर, नारायण तपस्या करने लगे। जिस पर्वत पर नर ने तप किया उसे नर पर्वत तथा जिस पर नारायण ने तप किया उसे नारायण पर्वत के नाम से जाना जाता है। जब नर, नारायण के तप के प्रभाव तीनो लोको में फैल गया । उनकी घोर तपस्या का पता जब सहस्त्र कवच को चला तो वह नर, नारायण से युद्ध करने बद्रीका आश्रम में आ गया। फिर पहले दिन नारायण ने युद्ध किया और सहस्त्र कवच का एक कवच तोड़ दिया, अगले ने नारायण तप करने लगे तो नर ने उसका दूसरा कवच तोड़ दिया फिर यही शिलशिला चलता रहा।

एक दिन नर तप करते तो उस दिन नारायण लड़ते, अगले दिन नारायण तप करते तो नर लड़ते। ऐसा करते-करते सहस्त्र कवच के ९९९ कवच तोड़ दिए। फिर सहस्त्र कवच डर के भागने लगा और  नर, नारायण उसका पीछा करने लगे तो वह भाग कर सूर्य देव की शरण में चला गया । सूर्य देव ने फिर भगवान् नर, नारायण से बिनती की, कि प्रभु अभी यह मेरी शरण में है और मेरा धर्म इसकी रक्षा करना है। तो दया करके सहस्त्र कवच को अभी छोड़ दें ।

श्री नारायण ने सूर्य देव की बात रखते हुए उन्हें कहा कि अभी तो में इसे छोड़ देता हूँ, किन्तु द्वापरयुग में आपको इसे कुंती के आवाहन करने पर अपने पुत्र के रूप में भेजना होगा। उस समय मैं कृष्ण अवतार में रहूँगा और नर, अर्जुन के अवतार में तब इसकी मिर्त्यु अर्जुन के हाथों से होगी। नर, नारायण वापस बद्रीका आश्रम आकर तप करने लगे।

कुछ समय बाद भगवान् नारायण ने देवताओं से कहा बद्रीका आश्रम से, नारद शिला के नारद कुंड के नीचे से उनकी मूर्ति निकालो और उसकी स्थापना करो, क्योंकि कलयुग का आरम्भ होने वाला है और मैं साक्षात् रूप में नहीं रह सकता, उस मूर्ति कि जो भी प्राणी दर्शन करेगा उसे मेरे साक्षात् दर्शन करने का फल प्राप्त होगा।  जो भी यहाँ सच्चे मन से आएगा उसे मोक्ष कि प्राप्ति होगी।

बद्रीनाथधाम

भारत के चार धामों की कहानी

4. रामेश्वरम

रामेश्वरम मंदिर भारत के दक्षिण दिशा में स्थित तमिलनाडु राज्य के रामेश्वरम द्वीप में स्थित है, रामेश्वरम मंदिर श्री रामनाथस्वामी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर भगवान शिव जी को समर्पित है। यह हिन्दुओं का एक पवित्रतीर्थ स्थल है। यहाँ स्थापित शिवलिंग भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। उत्तर भारत में कशी की जो मान्यता है वही मान्यता दक्षिण में रामेश्वरम की है। इसीलिए रामेश्वरम को दक्षिण का काशी भी कहा जाता है। रामेश्वरम एक तरफ बंगाल की खाड़ी तो दूसरी तरफ हिन्द महासागर से लगा हुआ द्वीप है। रामेश्वरम मंदिर भारतीय शिल्प कला का एक अद्भुद अजूबा है।

रामेश्वरम मंदिर का इतिहास

रामेश्वरम मंदिर अत्यधिक प्राचीन मंदिर है, जोकि भगवन शिव जी को समर्पित है। यह मंदिर अनेक धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान राम जी ने लंका पर विजय प्राप्त की तो उसके बाद उन्होंने इस स्थान पर एक शिवलिंग की स्थापना की और भगवान शिव जी की पूजा अर्चना शुरु कर दी।

यहाँ शिवलिंग स्थापित करने के लिए भगवान श्री राम जी ने हनुमान जी को शिवलिंग लाने के लिए कैलाश पर्वत पर भेजा, लेकिन हनुमान जी को कैलाश से शिवलिंग लाने में विलंब होने के कारण माता सीता जी ने बालू से एक शिवलिंग बनाया और उसे यहाँ स्थापित कर दिया, इस शिवलिंग को रामलिंगम के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है की रामेश्वरम मंदिर के निर्माण में जिन पत्थरों का प्रयोग किया गया वह सारे पत्थर बहुत दूर से यहाँ लाएं गए है।

रामेश्वरम मंदिर का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है, इस गलियारे की दीवारों पर सुंदर देवी देवताओं की मूर्ति और हिन्दु धर्म से जुड़े अन्य चीज़ों की नक्काशी की गई है। इसके अलावा यहाँ मंदिर में 22 तीर्थ कुंड हैं, जहां भक्त स्नान करते हैं।

रामेश्वरम मंदिर का धार्मिक महत्त्व

रामेश्वरम मंदिर चार धामों में से एक धाम है। इस वजह से हिन्दू धर्म में मंदिर का बहुत बड़ी धार्मिक मान्यता और महत्त्व है। यह मंदिर भारत में धार्मिक ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। रामेश्वरम मंदिर न केवल शिव भक्तों के लिए, बल्कि सभी हिन्दू धर्म को मानने वाले लोगों के लिए एक पवित्र स्थल है।

माना जाता है की रामेश्वरम की यात्रा करने से जीवन में पापों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती  है। रामेश्वरम मंदिर की यात्रा करना काशी के समान माना जाता है, इसलिए रामेश्वरम मंदिर को दक्षिण का काशी भी कहा जाता है। यहाँ महाशिवरात्रि का त्यौहार विशेष उत्सव के रूप में मनाए जाता है। इस दिन श्रद्धालु यहाँ मंदिर में भगवान शिव जी की पूजा अर्चना करने के लिए आते हैं।

रामेश्वरम

भारत के चार धामों की कहानी

Also read…

uttarakhand famous temples list

More From Author

1 comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *